रेगिस्तान के जहाज ऊँट की स्थिति और भविष्य

रेगिस्तान के जहाज ऊँट की स्थिति और भविष्य

BARMER


 

                                                           भारत के पश्चिम में बसे राजस्थान का जिक्र थार मरुस्थल के बिना अधूरा है और मरुस्थल ऊँट के बिना अधूरा। ऊँट जिसे पहचाना ही रेगिस्तान के जहाज के रुप में जाता है, थार मरुस्थल में जहाज से भी कहीं ज्यादा अनमोल है। विभिन्न सुनहरे रँगों से दमकती राजस्थान की जिस सँस्कृति को आज हम देखते हैं उसकी नींव ऊँटों की पीठ पर ही टिकी हुई है। हजारों वर्ष पहले संस्कृत भाषा ने ऊँट को अनेक पर्यायवाची दिये थे, जिनमें एक नाम "मय" भी है, इसी से "माया" भी निकली। महाभारत में "मय" नाम का राक्षस, पांडवों के लिये इंद्रप्रस्थ का निर्माण करता है, जहाँ "मय" की शक्तियाँ "मायाजाल" का अनुपम उपयोग करती हैं, जिनके भ्रम में अच्छे-अच्छे "मायावी" भी उलझ जाते हैं।

                                                               ठीक उसी तरह ऊँट ने भी "मय" रूप में थार मरुस्थल में छोटी से छोटी ढाणी-गांव से लेकर विशाल रजवाड़ों, सुदृढ़ दुर्गों और उनके आसपास बसे भव्य नगरों की "माया" को रचा है। थार मरुस्थल में बिना ऊँट जल था अन्न था, व्यापार था अर्थ था, प्रेम था दुश्मनी थी, शांति थी युद्ध था। यहाँ ऊँट मनुष्य के जन्म से मरण तक साथ था, सदियों तक यह रिश्ता अटूट रहा, परन्तु अब यह टूटने लगा है। अब ऊँट अनावश्यक हो चुका है, इसका कोई उपयोग नहीं, उपयोग तो घोड़े का भी नहीं रहा परन्तु घोड़े के साथ भव्यता, सुंदरता, बुद्धिमत्ता जुड़ी हुई है, बेचारा भूरे रँग का ऊन से लदे बिना चमकते शरीर वाला, मूर्ख दिखने वाला ऊँट भला उसके सामने कहाँ टिके। वैसे भी उसे यह सम्मान मरुस्थल के वासी ही दे सकते हैं, जिन्होंने इसके साथ पीढ़ियों का साथ निभाया है। आज थार के वाशिंदों को जरूरत है अपने इस जहाज के साथ सम्बन्धों को पुनः मधुर बनाकर उसे, उसके हक का मान सम्मान दिलाने का।


 

                                                                        आज भी कई लोग शौक से ऊँट रखते हैं, वहीं कुछ समुदाय आज भी पारम्परिक ऊँट पालन को जीवित बनाये रखने का संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन सिकुड़ते चारागाह-ओरण के साथ राजस्थान सरकार के राज्यपशु सनरकधन कानून से खत्म हो चुका ऊँट का बाजार उनके सामने बड़ी समस्या है। आज जब दुनिया इंटरनेट से छोटी हो चुकी है, दूर-दराज के वाशिंदे अपने हाथ में स्मार्टफोन पर अपने विषयों की जानकारी कुछ ही पलों में प्राप्त कर लेते हैं तब यह ऊँट पालक भी खाड़ी-अरब देशों के शेखों के आधुनिक ऊँट बाडों, ऑस्ट्रेलिया की आधुनिक ऊँटनी के दूध की डेयरियाँ, उनके बने आकर्षक खाद्य-प्रसाधन उत्पाद, अफ्रीकी सहारा देशों में होने वाले ऊँटों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खेल देखकर उनका भी मन करता है वे भी अपने ऊँटपालन को आधुनिक करें, अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाये, ऊँटनी के दूध के 10.8 बिलियन अमरीकी डॉलर के अनुमानित अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हिस्सा ले, लेकिन यहाँ पर सरकारी ऊँट पालन योजनाओं की विफलताओं, आधुनिकरण की उपेक्षा चरागाहों के संकट से जूझते पशुपालन में ऊँटपालक स्वयं को ठगा सा महसूस करते हैं। लेकिन अभी भी हम उम्मीद कर सकते हैं ऊँटपालन के दिन फिरेंगे, कुछ युवा इस तरफ मेहनत भी कर रहे हैं बस हम सभी को जरूरत है ऊँटपालन को भी सम्माननीय दृष्टि से देखने और उसके सांस्कृतिक पहलू पर गर्व महसूस करने की।

 

                                                             वर्ष 1961 की बात है, पहली बार दुनिया के सभी देशों में विश्व खाद्य संगठन द्वारा ऊँटों की गणना का रिकॉर्ड तैयार करा गया था। विश्व के 38 देशों में 1 करोड़ 29 लाख से अधिक ऊँट मौजूद थे जिसमें सर्वाधिक ऊँट भारत में 10 लाख से अधिक थे, अगले तीन दशक तक यह स्थिति बनी रही, भारत विश्व में ऊँटों की सँख्या में अव्वल देशों में शुमार रहा, लेकिन खाड़ी आसपास के देशों में 70-80 के दशक में तेल व्यापार से बेहतर होती अर्थव्यवस्था के कारण माँस दूध के लिये आधुनिक ऊँट डेयरीयाँ विकसित होने लगी जिसके साथ उन देशों में ऊँटों की सँख्या में लगातार बढ़ोतरी भी दर्ज करी गई। वहीं भारत में 90 के दशक के आर्थिक सुधारों के साथ ऊँटों की सँख्या औंधे मुँह गिरने लगी, वर्ष 1992 में भारत में 10 लाख ऊँट थे वही अगले 11 वर्षों में 2003 में 6 लाख पहुँच गये, वर्ष 2012 में 4 लाख और वर्ष 2019 में मात्र 2.5 लाख रह गये। वर्ष 2020 के विश्व खाद्य संगठन के आँकड़ों में 46 देशों में  3 करोड़ 50 लाख से ज्यादा ऊँट मौजूद हैं।


 

                                                       विश्व में ऊँटों की यह सँख्या बढ़ने का मुख्य कारण है, ऊँटनी के दूध का बढ़ता अंतर्राष्ट्रीय बाजार, पिछले 5 दशकों में अफ्रीका खाड़ी देशों ने इस दूध के उत्पादन बाजार में काफी उन्नति प्राप्त करी है, हालाँकि यह गाय की डेयरी से काफी छोटा है लेकिन इन सूखे-मरुस्थलीय देशों में ऊँट को गाय-भैंस की तुलना में पालना ज्यादा आसान है, अतः वहाँ की सरकारों उद्योगपतियों द्वारा ऊँट पालन को विशेष रूप से ग्रामीण कबाईली इलाकों में रोजगार के रूप में प्रोत्साहित करा गया। वर्ष 2020 के अंत तक ऊँटनी के दूध का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार 10.8 बिलियन अमरीकी डॉलर का था, जिसमें मुख्य उत्पादक देश सोमालिया, सऊदी अरब केन्या थे जो कुल उत्पादन का 64% दे रहे थे, इसके अलावा माली, इथोपिया, नाइजर, सूडान, संयुक्त अरब अमीरात, चैड, मोरितानिया, मंगोलिया, कजाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया भी इसमें शामिल थे। वहीं इस बाजार के मुख्य खरीददार खड़ी देश, अफ्रीका के देश, चीन, अमरीका यूरोप के देश थे। इसके अलावा भी अरब अफ्रीकी देशों में पिछले 5 दशकों में ऊँटों की माँग अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताओं माँस के लिये भी बढ़ी है। खाड़ी देशों के साधन संपन्न शेखों द्वारा ऊँट को अपनी संस्कृति धरोहर की पहचान के रूप में मार्केट करा जाता है।

 

 

 

                                           लेकिन भारत इस पूरे अंतर्राष्ट्रीय बाजार से दशकों से नदारद है क्योंकि हमारे सरकारी कानून राजस्थान से बाहर ऊँट को बेचने नहीं देते, ऊँटों के अंतर्राष्ट्रीय खेलों में जाने को खिलाड़ी, टीम, जानकारी, प्रोत्साहन भी उपलब्ध नहीं है, आज तक एक भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऊँट डेयरी विकसित करने के प्रयास तो छोड़े सोचा भी नहीं गया है। हाँ एक सरकारी उष्ट्र अनुसन्धान केंद्र, बीकानेर में हमारे पास अवश्य है, लेकिन वह भी फिलहाल स्थिति को संभाल पाने में असमर्थ ही लगता है, क्योंकि उनका मुख्य कार्य देश की सीमाओं की सुरक्षा में सेना को अच्छी नस्ल के ऊँट प्रजनन कर उपलब्ध करवाने तक ही सीमित है।

 

 

 

पार्थ जगाणी

Jaisalmer