राजस्थान की संस्कृति एवं परम्पराओं के इर्द-गिर्द झाँकोगे तो आपको ऐसी कई उत्कृष्ट कौशल की नजीरें मिलेगी जिनसे आप शायद ही परिचित हो वर्तमान में पश्चिम राजस्थान के बाड़मेर (मालाणी, खावड़, कोटड़ा, बसिया एवं सोढ़ाण क्षेत्र) का प्रसिद्ध व्यंजन साकर री रोटी ( मिश्री- रोटी ) सुर्खियों में है मिश्री रोटी का जितना महत्व सगाई-सम्बधों में रियाण की शोभा बढ़ाने में है, उससे कहीं अधिक महत्व इसके बनाने के कौशल में हैं, क्योंकि मिश्री की रोटी बनाना हर किसी के वश की बात नहीं है। प्राचीन समय से चला आ रहा यह कौशल वर्तमान में अखबारों की आबोहवा में हैं, तो इसके ऐतिहासिक महत्व एवं परम्पराओं से जुड़ाव को सभी के सामने लाना भी आवश्यक हो जाता है।
एक दन्तकथा है कि आज से लगभग चार-पाँच सौ वर्ष पहले अमरकोट के राणा साहब का मारवाड़ की ओर आगमन हुआ था और वे मालाणी के कोटडा ठिकाने के ठाकुर साहब के वहां विश्राम करने को रूके थे । ठाकुर साहब ने भोजन का आग्रह किया लेकिन रजवाड़े व ठिकाने के संस्तरण को मध्य नजर रखते हुए उनके साथ के चारण कवि ने भोजन आमंत्रण को टालने के लिए एक ऐसी रोटी की कल्पना कर दी जो आज तक न बनी थी और न संभव थी । उन्होने कहा-
बिन पाणी रूप ऊजळी, दाग नी होवे हैक।
साकर ज्यों मीठी, चुतराई रो पुड़ पाको हैक।।
अर्थात् राणोसा ऐसी रोटी का जीमण करेंगे जो बिना पानी के, बिना दाग के हो तथा उसका रंग ऊजळा(सफेद) तथा स्वाद में मीठी होनी चाहिये तथा ऐसी चुतराई(स्वच्छता व कौशल) से बनी हो की रोटी को एक (पुड़) तरफ ही पकाया जाये। इस तरह की रोटी के बारे में सुनकर ठाकुर साहब को लगा की घर आये मेहमानों को भूखा जाना होगा फिर भी उन्होने ठकुराइन को इस बारे में अवगत करवाया। ठकुराइन ने कहा आप निश्चित रहे मैं ऐसी ही रोटी बनाकर राणा जी को खिलाऊंगी एवं ठकुराइन ने अपनी देवराणी के सहयोग से घृत(घी) व मैदे से कंगूरे बनाकर एक तरफ पकाकर पीसी मिश्री के मेल से वैसी ही कल्पित रोटी को साकार कर दिखाया।
राणाजी व बारहठ जी के लिए भोजन लगाया गया और थाऴ मे वैसी ही रोटी थी, जैसी बारहठ जी ने कल्पना की थी। हालांकि राणाजी भोजन को टालना नहीं चाहते लेकिन चारण कवि ने भावावेश में कहा था इसके लिए चारण कवि ने ठकुराइन की चतुराई व पारख(परखना)की प्रशंसा करते हुए कई छंद कहे। राणाजी ने साकर की रोटी को काफी सराहना और इसकी तुलना स्वर्ग-भोग से की, कहा जाता है ठकुराइन ने रोटियों का बीड़मा (भेंट भेजने का पीतल का बर्तन) भरकर राणाजी के साथ भेजा था। राणाजी को इन रोटियों का स्वाद इतना भा गया था कि उन्होने अपने पुत्र का रिश्ता ठाकुर साहब के वहां किया था और फिर वर्तमान तक सगाई/विवाह-सम्बन्धों के अवसरों पर इस मिश्री-रोटी की भेंट सभी की पहली व आखिरी पसंद होती है । कहते हैं इस तरह साकर की रोटी का ईजाद हुआ था।
साकर की रोटी इन परम्पराओं के अलावा पश्चिम राजस्थान में जवाई-सा के आगमन पर विशेष भोज के रूप मे बनायी जाती है, जो कि एक संस्कृति का स्वरूप है विशेष बात यह है साकर रोटी के पाक का कौशल केवल राजपूत महिलाओं एवं बालाओं तक ही सीमित है यह व्यंजन हेरिटेज व पाँच सितारा होटलों तक पहुँच बना सकता है, यदि इसको अवसर मिले। इससे अपने समाज की महिलाओं की आर्थिक संबलता को भी बढावा मिल सकेगा इसके लिए हमें मिश्री-रोटी को वार-त्यौहारो एवं विवाह इत्यादि समारोह की मेन्यू लिस्ट में तरजीह देनी होगी।
एक अंहकार के व्यंग्य से उत्पन्न हुआ, यह व्यंजन भौगोलिक संकेत (GI) टैग प्राप्त करने के योग्य हैं । जरूरत है तो इसके समुचित प्रचार व प्रसार की ,कोटडा मूल के कोटडियाँ राठौर राजपूत बहुल कोटडा, हाथी सिंह का गाँव, राणेजी की बस्ती, आकली, बलाई, बालासर, हुकम सिंह की ढ़ाणी , तालो का पार, जालेला व अन्य आस पास के गॉव ढाणियों में केवल राजपूत गृहणियों द्वारा ईजाद व निर्मित यह हेरिटेज व्यंजन है, जो यहाँ आने वाले आम व खास मेहमानों की पहली व आखरी फ्संद है। विशिष्ट व स्वादिष्ट होकर भी अपनी पहचान को मोहताज यह व्यंजन विलुप्ति के कगार पर है!