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राजस्थान के हिंदी कथा साहित्य के विकास में डॉ. सत्यनारायण का एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनका साहित्य में आना एक ऐतिहासिक घटना है महाश्वेता देवी ने एक जगह लिखा है कि “साहित्य को केवल भाषा, शैली और शिल्प की कसौटी पर रखकर देखने का मापदण्ड गलत है। साहित्य का मूल्यांकन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में भी होना चाहिए। किसी लेखक के लेखन को उसके समय और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखना ही उसका वास्तविक मूल्यांकन है।
दरअसल, जब डॉ. सत्यनारायण ने लिखना शुरू किया था तब हिन्दी कहानी नए बदलाव की तरफ बढ़ रही थी। 80 और 90 में दशक की कहानियाँ "सम्बन्धों को मोहभंग की कहानियाँ हैं। इनमें कहानीकारों का स्वयं का भोगा हुआ यथार्थ भी शामिल है।
डॉ. सत्यनारायण के तीनों कहानी संग्रहों को पढ़ते हुए लगता है कि वे किसी मेट्रो शहर के आरामदायक मकान या सर्किट हाउस में बैठकर लिखने वाले कहानीकार नहीं है, बल्कि वे अपने पात्रों के साथ स्वयं ताफड़े तोड़ते हुए नजर आते हैं। इसलिए उनकी कहानियों में हमारें निर्मम समय की निर्लज्ज व संवेदनशील आधुनिकता का बखुबी परिचय मिलता है। कृष्ण कल्पित लिखते हैं कि "इस अद्भुत नायक के पास लड़ने के लिए सिर्फ "अपने कमाए हुए शब्द" है। एक ऐसी भाषा जो शिराओं में बहते रक्त और अपनी धरती से उठती हुई महक से बनती है। "