Description :
शहर में पढ़ाई करने आया था। साथ पढ़ने वाले सभी मित्रों के गांव-घर से पत्र आते थे खैर ख़बरवाले। जब वे उन्हें पढ़ते, बार-बार पढ़ते तब मैं टुकुर-टुकुर ताकता रहता। उनकी आँखों में छपे हरफों को पढ़ने की कोशिश करता तो यही पाता कि लिफाफों पर छपी डाकघर की मोहरों का ही कुछ कमाल है जो चिट्ठियाँ इन हाथों तक पहुँचती हैं।
- तुम्हारी चिट्ठी? एक दिन जगदीश ने पूछ ही लिया जो श्री महावीर जी मंदिर के पुजारी का बेटा था। जिसकी रोज चिट्ठी आती थी। जवाब में मैंने कहा था- कहीं गुम गयी होगी हमारे यहां डाक-घर दूर गांव में हैं। कुछ दिनों बाद गांव गया तो मैंने खुद के ही नाम खुद को एक चिट्ठी लिखकर लाल डिब्बे में डाल दी थी।
एम.ए. के बाद के दिन थे। किराये के एक कमरे में जो सिर्फ रात का बासा होता था। देर रात गए आता और अल-सुबह निकल पड़ता किराया दिए हुए महीनों हो जाते। मकान के बाहर ही मकान मालिक की किराने की दुकान थी। इससे वह सामान भी बेचता और किरायेदारों पर नजर भी रखता। देर रात दुकान बढ़ाने (बंद करने) के बाद मैं आता और सुबह सवेरे खुलने से पहले निकल पड़ता। एक दिन देर रात गए भटकते हुए कहीं से लौटा तो एक बारगी सोचा तुरन्त लौट जाऊं पर तब तक मकान मालिक व दुकानदार दोनों ने देख लिया था। दोनों का बकाया था। दोनों से मैं डरा हुआ था। लौटने की कुछ सोचूं या अन्य जतन करूं उससे पहले ही उसके बोलों ने मुझे अपने जाल में लपेट लिया- दो चार दिन होगा थांकी एक चिट्ठी आयोड़ी है। यह एक और डर था। मकान मालिक के डर से परे। क्योंकि जिस चिट्ठी के लिए बरसों पहले तरसता था अब वही मुझे डराती थी। उन दिनों चौतरफा दुःख जैसे मेरे जीवन में ऊँ की तरह टांग तुड़ा कर बैठ गया था। यह 22 जून 78 की बात थी और वह चिट्ठी आज तक आधी बाँची आधी अन बाँची मेरी आँखों में अटकी हुई है।