Description
'थार की गौरव गाथाएँ' जैसलमेर के इतिहास की कहानियाँ हैं जिनका उत्स ख्यातें, इतिहास-ग्रन्थ और लोक किंवदन्तियाँ हैं। इन कहानियों की प्रेरणा जैसलमेर के सुप्रसिद्ध कथाकार डॉ. ओम प्रकाश भाटिया रहे हैं, जिन्होंने मुझे गद्य-लिखने के लिए प्रेरित किया। जैसलमेर के लोक विश्रुत नाम 'माड' को केन्द्र में रख कर यदुवंशी भाटियों की बलिदानी गाथाओं को पाठकों के लिए रचने का उन्होंने आग्रह किया और इस आग्रह को गोपालसिंह भाटी (सुपरिण्टेण्डेंट इंजीनियर) बारू, प्रभुसिंह राठौड़ (जीवन बीमा निगम) बुड़किया, भाई सत्यदेव संवितेन्द्र व स्वामी कृष्ण कबीर (वरिष्ठ कवि बाड़मेर) ने आगे बढ़ाया। अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से इतिहास का रक्षण करते हुए मैंने कथा-सूत्र आगे बढ़ाए हैं। ऐतिहासिक पात्रों के साथ कहीं-कहीं काल्पनिक पात्र भी हैं, जो कथा सूत्रों के विकास के लिए आये हैं, किन्तु उनकी सांस्कृतिक भूमिका असंदिग्ध है, क्योंकि वे तत्कालीन समाज के अनिवार्य अंग हैं।
ये इतिहास कथाएँ हैं, कहानियाँ नहीं। जैसलमेर के भाटियों का स्वाभिमान और स्वातंत्र्य प्रेम इतिहास का उज्ज्वल पृष्ठ है और उसके ढाई जौहर शाके उसके स्वर्णाक्षर। माडघरा में तणुकोट और लौद्रवा के जौहर शाके जैसलमेर के शाकों से अलग हैं, जो राव तणु और रावल भोजदे के समय हुए थे। मेरी मान्यता है कि किसी भी राष्ट्र का भविष्य ऐस बलिदानी गाथाओं की नींव पर ही विकसित होता है। विकास की गाथा गाने वालों को थोड़ा रुक कर इस सम्बन्ध में विचार करना चाहिए। स्वाभिमान रहित राष्ट्र शीघ्र ही अपनी स्वाधीनता खो देते हैं। वैश्विक होती दुनिया के परिदृश्य में देश और समाज की कांकड़ों की कड़ियाँ ढीली अवश्य हो रही हैं, लेकिन क्या निर्बल और अशक्त मानवता आज भी रौदी नहीं जा रही है।
मेरी अहिंसा में आस्था है। गांधी जी ने कहा था कि 'अहिंसा वीरों का भूषण है। उन्होंने कायर की तरह जीने की बजाय बलिदानी राह को श्रेयस्कर बताया है। अपनी 'आत्मकथा' में उन्होंने राजपूत नारियों के चरित्र बल पर प्रशंसात्मक टिप्पणी की है।
आज हमारे समाज में इसी चरित्र बल की कमी है, जिसके अभाव में हम चतुर्दिक क्षरण के शिकार हैं। नोबेल पुरस्कार प्राप्त सुप्रसिद्ध साहित्यकार वी. एस. नॉगपाल जैसे लोग भी अपनी 'जहाँ की तलाश कर रहे हैं। 'अपनी पहचान के संकट' से ग्रस्त हो उससे पहले ही हमें अपनी जड़ों की पहचान कर उसे संरक्षित करना होगा। मेरी 'धार की गौरव गाथाएँ' जहाँ की पहचान का ही एक उपक्रम है। श्रद्धेय गुरुवर प्रो. एल. एस. राठौड़, साहब ने थार की गौरव गाथाएँ' को आशीर्वाद देकर मेरा मान बढ़ाया है। उन्होंने कई अवसरों पर मुझे सम्मानित किया है, जो मेरे प्रति उनके असीम-स्नेह का ही सूचक है। उनके ऋण से उऋण होने की में केवल कल्पना ही कर सकता हूँ।
मेरी यह कृति मातृभूमि के प्रति हेत- प्रेम का ही प्रकटीकरण है। मैंने बचपन में इस धोरा धरती के लिए जो भाव प्रकट किये थे इसका ही विस्तार है यह कृति
धाप धाप कह धोरा धरती, किण लाली अर लोही सूं।
राता क्यूं घर थारा, रजकण, किणरै रगतां धोई थं ॥
बोलो मगरां मून मती लो, भाखरियां भभको थे आज।
रगत देय रंगिया जिण थाने, उण पर आवे क्यूं नीं नाज ॥
कण कण में जिणरी कुरवाणी, काट्या शीश सिरोही सूं।
राता क्यूं घर थारा रजकण, किणरै रगतां धोई यूं ॥
इस धरती के राते मतवाले बलिदानी रजकणों की ओळू में ही ये गाथाएँ विकसित हुई है। इस ओळू को पाठकों को सौंपता हुआ में हल्का महसूस कर रहा हूँ। माड संस्कृति से सम्बन्धित एक परिशिष्ट भी उन पाठकों के लिए पुस्तक के अंत में दिया गया है जो कहानियों के सम्प्रेषण में पाठकों की सहायता करेगा। रॉयल पब्लिकेशन्स के भाई सूर्यप्रकाश जी भार्गव के प्रति आभार ज्ञापित करना केवल औपचारिकता है, इसे आकर्षक रूप में आप तक पहुँचाने का सारा काम उन्होंने ही किया है।