Description
चारण साहित्य प्रकृति और परमेश्वर की समवेत आराधना का शास्त्र है। इस साहित्य के इन्द्रधनुष्षी रंगों में वीरतापूर्ण दानवीरों की आराधना कर उन्हे जीवित-जागृत रखा है। कदाचित अन्य सब लोग उक्त सामाजिक तस्वीरों को भूल गए हो, लेकिन चारण साहित्य के कालजयी प्रवाह ने संतों और शूरों को पुनः जगत् साहित्य के केन्द्र में प्रतिष्ष्ठित किया है। एक प्राचीन दोहा इस बात की गवाही देता है- मात, पिता, सुत, मेहळा, बांधव बीसारेह शूर दतां सतिया चरित, चारण चीतारेह। चारण साहित्य की इस समृद्ध और समुज्जवल परंपरा के समर्थ संवाहक के रूप में हरदास जी मीसण सिरमौर है, हरदास जी स्वयं परम शिवभक्त थे। उनके साहित्य में शिवत्व का सौंदर्य मंडित पावनकारी रूप दर्शनीय है। उन्होने जालंधर पुराण’ नामक अद्वितीय काव्य-ग्रंथ की रचना कर चारण काव्य-साहित्य में अपना विशिष्ष्ट स्थान प्राप्त किया। उन्होने अपनी रचनाओं में तमाम काव्यरसों का अद्धुत मिश्रण कर रससिद्धि कवि के रूप में अपूर्व ख्याति अर्जित की। हरदास जी दीर्घ कथा मूलक-प्रबंधात्मक कृतियों में साहित्य और शैली के यथोचित संयोजन के परिणामस्वरूप रसज्ञ भावक अनायास ही रससम्पन्न हो जाते है। हरदास जी मीसण मूलतः भक्त कवि और उनासक्त भक्ति थे। उनके वैयक्तिक जीवन में उच्च मानवीय मूल्यों और संस्कारों का अनुकरणीय एवं प्रेरणाप्रद रूप उन्हे उदात मानवीय भावभूमिका पर प्रतिष्ठित करता है। ‘जालंधर पुराण’ काव्यंग्रथ मध्यकालीन चारण साहितय परम्परा का अद्वितीय और उज्वल रत्न है।
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