Description
भगवान की भांति मनुष्य भी स्वभावत: व्यक्त होता है; इसलिए संसार में बिखरी हुई विपुल ज्ञान-राशि में वह उसी को पसन्द करता है जो उसके मर्मस्थल को छू देतो हैं; अथवा यह कहिये कि जिस ज्ञान को किसी के व्यक्तित्व का समर्थन प्राप्त हुआ है वह ज्ञान उसी व्यक्ति पर सबसे अधिक अपनी छाप डालता है। जो व्यक्ति गीता को ध्यान से और तत्त्व की दृष्टि से पढने की चेष्टा करता है उसे गीता निजी अनुभवों से भरी व्यावहारिक ज्ञान की परिपाटी-सी लगती है। इसलिए गीता को विषय बना कर अनेकों ग्रन्थों का निर्माण हो चुका है, फिर भी उस पर बहुत थोड़ा लिखा गया है। मैं कह नहीं सकता कि मेरी इतनी छोटी पुस्तक उसके किसी पहलू पर समुचित प्रकाश डाल कर वह कमी पूरी कर सकती है;मगर यह मैं अवश्य कह सकता हूँ कि गीता को मैंने अपने दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की है और ज्यों-ज्यों मैं अपने दृष्टिकोण में गम्भीरता लाता गया, गीता अपनी सम्पूर्ण सहायता लिए माँ की भाँति दौड़ पड़ी।
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स्व. तन सिंह
(जन्म 25 जनवरी 1924) एक भारतीय राजनीतिज्ञ और दो बार लोकसभा के सदस्य थे। उन्होंने युवा राजपूतों के लिए एक संगठन श्री क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना की। वे भारतीय संसद में प्रवेश करने से पहले राजस्थान राज्य की विधान सभा के सदस्य बने रहे।
1944 की दिवाली की रात थी। प्रवेश पिलानी शहर उत्सव की रोशनी में नाच रहा था। स्थानीय राजपूत छात्रावास के अपने कमरे में एक अकेला राजपूत नौजवान अकेला बैठा था, किसी बात के बारे में बहुत गहराई से सोच रहा था। वह सोच रहा था कि 'मेरे राष्ट्र का क्या होगा ’.....? ..... क्या मेरा समाज कोई बदलाव करेगा .....? ..... मुझे दीपक कहाँ से मिलना चाहिए, जिससे ज्ञान मिलेगा मेरा समाज; ..... वह दीपक कौन बनेगा? ..... मैं अपने जीवन का क्या करूंगा? ..... उस युवा की इस पीड़ा ने उसके संकल्प श्री क्षत्रिय युवक को जन्म दिया संघ। वह नौजवान कोई और नहीं बल्कि श्री क्षत्रिय युवक संघ के संस्थापक तन सिंह जी थे।