समाज चरित्र

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इस बात की सभी को आवश्यकता प्रतीत हो रही है कि समाज को जागृत करने और उसे सच्चा जीवन देने के लिये ऐसे कदम उठाये जाने चाहिए, जिससे समाज को स्थाई लाभ हो और वह अपना सर्वांगीण विकास कर सके। समाज जागरण के निमित्त केवल आन्दोलन ही उचित मार्ग नहीं है। आंदोलन तो संगठित शक्ति का प्रदर्शन मात्र है वह जनमत की अभिव्यक्ति है, किन्तु स्वयं जनमत का निर्माण करना एक महत्त्वपूर्ण और अति कठिन कार्य है। बिना शक्ति के उसका प्रदर्शन कैसा ? बिना बल के विजय का नारा बुलन्द करना शक्ति का अपव्यय है, शक्ति का निर्माण हरगिज नहीं। लोग इसके लिये अनेक प्रकार से प्रयास करते हैं । कई लोग प्रचार के साधन अपना कर दुनिया में एक कृत्रिम वातावरण द्वारा व्यक्ति अथवा सिद्धान्त की महत्ता का दिग्दर्शन कराते हैं, तो कई लोग सिद्धान्त की प्राप्ति के लिये साधना के तुच्छ कार्यक्रम को ही साध्य जितना महत्त्व देकर कहते हैं, कि उसी में उत्थान निहित है। किन्तु, इस प्रचार प्रद्धति में एक बड़ी ही कमी रहती है। प्रचार एक संस्कार है, किन्तु वह सिर्फ बौद्धिक संस्कार ही है उसके व्यावहारिक पहलू की तरफ देखा जाय, तो प्रचार एक ढोंग सा लगेगा जब तक कि उस ढोंग के भीतर किसी ऐसी रूप-रेखा का दर्शन न हो, जो प्रचार की बातों को क्रियात्मक रूप से चरितार्थ करा सके। इस क्रियात्मकता के बिना बहुत सी संस्थाओं और व्यक्तियों का पतन हुआ है। समाज ऐसी संस्थाओं और व्यक्तियों के साथ क्षणिक रूप से उठने का प्रयास तो जरूर करता है, किन्तु वास्तविक रूप में यह शक्ति का अपव्यय ही है। यदि समाज किसी आकर्षण की ओर जागृति की प्रेरणा प्राप्त कर उठने की कोशिश करता है, तो हम यही कह सकते हैं, कि उसे प्रचार का नशा आगया है। नशा नैसर्गिक शक्ति को जन्म नहीं दे सकता, बल्कि उसे उभाड़ता है निर्बल की नैसर्गिक शक्ति यदि बार-बार उभड़ती रहे, तो वह अपने ही विनाश का कारण बनेगी, जब तक कि शक्ति को उभाड़ने वाले तत्व स्वयं शक्ति के उत्पादक न बन जायें प्रचलित युग की सभी राजनैतिक संस्थाओं में यह बड़ी कमी है

About Author

स्व. तन सिंह

(जन्म 25 जनवरी 1924) एक भारतीय राजनीतिज्ञ और दो बार लोकसभा के सदस्य थे। उन्होंने युवा राजपूतों के लिए एक संगठन श्री क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना की। वे भारतीय संसद में प्रवेश करने से पहले राजस्थान राज्य की विधान सभा के सदस्य बने रहे।

1944 की दिवाली की रात थी। प्रवेश पिलानी शहर उत्सव की रोशनी में नाच रहा था। स्थानीय राजपूत छात्रावास के अपने कमरे में एक अकेला राजपूत नौजवान अकेला बैठा था, किसी बात के बारे में बहुत गहराई से सोच रहा था। वह सोच रहा था कि 'मेरे राष्ट्र का क्या होगा ’.....? ..... क्या मेरा समाज कोई बदलाव करेगा .....? ..... मुझे दीपक कहाँ से मिलना चाहिए, जिससे ज्ञान मिलेगा मेरा समाज; ..... वह दीपक कौन बनेगा? ..... मैं अपने जीवन का क्या करूंगा? ..... उस युवा की इस पीड़ा ने उसके संकल्प श्री क्षत्रिय युवक को जन्म दिया संघ। वह नौजवान कोई और नहीं बल्कि श्री क्षत्रिय युवक संघ के संस्थापक तन सिंह जी थे।

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