Description
सन् 1950 के दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में मैंने एक शिक्षण शिविर के सिलसिले में चित्तौड़ को अपने जीवन में पहली बार ही देखा। देखने के दो महीने के बाद तक उसे कसक और वेदना से मुक्त नहीं हो सका जो उसके प्रत्येक पत्थर और स्मारक में कसमसा कर मूक हो गई है। कलम का सहारा लेकर मैंने उन भावनाओं को 'वैरागी चित्तौड़ शीर्षक' देकर भाषा के बन्धनों में जकड़ कर मुक्ति की सांस ली। लेकिन क्षिा के तीर प्रायः स्मरणीय वीर दुर्गादास की छत्री को सन् 1958 की फरवरी में देखकर सोई हुई वेदना फिर विद्रोह कर उठी। जब भुलावे के प्रयास विफल हो गए तो उन्हें भी 'क्षिप्रा के तीर शीर्षक देकर दूसरा गद्य लिख दिया। कुछ अंतरंग साथियों ने आग्रह किया कि ऐसे तीन और लेख लिखकर पाँच लेखों को पुस्तक का रूप दे दिया जाय। 'बदलते दृश्य' शीर्षक से तीसरा लेख उसी आग्रह के फलस्वरूप लिखा जाने लगा, किन्तु लिखते-लिखते उसका बड़ा रूप हो गया इसलिये इसकी पृथक पुस्तक तैयार हो गई। शेष दो लेख मेरी आगामी पुस्तक होनहार के खेल' की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
About Author
स्व. तन सिंह
(जन्म 25 जनवरी 1924) एक भारतीय राजनीतिज्ञ और दो बार लोकसभा के सदस्य थे। उन्होंने युवा राजपूतों के लिए एक संगठन श्री क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना की। वे भारतीय संसद में प्रवेश करने से पहले राजस्थान राज्य की विधान सभा के सदस्य बने रहे।
1944 की दिवाली की रात थी। प्रवेश पिलानी शहर उत्सव की रोशनी में नाच रहा था। स्थानीय राजपूत छात्रावास के अपने कमरे में एक अकेला राजपूत नौजवान अकेला बैठा था, किसी बात के बारे में बहुत गहराई से सोच रहा था। वह सोच रहा था कि 'मेरे राष्ट्र का क्या होगा ’.....? ..... क्या मेरा समाज कोई बदलाव करेगा .....? ..... मुझे दीपक कहाँ से मिलना चाहिए, जिससे ज्ञान मिलेगा मेरा समाज; ..... वह दीपक कौन बनेगा? ..... मैं अपने जीवन का क्या करूंगा? ..... उस युवा की इस पीड़ा ने उसके संकल्प श्री क्षत्रिय युवक को जन्म दिया संघ। वह नौजवान कोई और नहीं बल्कि श्री क्षत्रिय युवक संघ के संस्थापक तन सिंह जी थे।